अभिनय के चिराग को बुझते किसी ने नहीँ देखा, सच्ची श्रद्धांजलि

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एकल अभिनय के सशक्त कलाकार को श्रृद्धांजलि

विगत शनिवार को क्यों कर गले मे फांसी का फंदा डाल लिया,,अश्वत्थामा ने न्यूइण्डिया खबर राजस्थान के इस बेहतरीन रंगमंच कलाकार को नमन करती है।

’सारी दुनियाँ के लंगड़ों के रोल मैं करूंगा’ – जेडी

जेडी कभी हेयर कटिंग नहीं करवाते थे, कभी शेव नहीं बनाते थे। उनका कहना
था कि मेरे अभिनय को, ‘‘एक क़तरा ख़ून’’ के उस काल को, इसी प्रकार का चेहरा
सूट करता है। वैसे भी मेकअप करके नक़ली दाढ़ी बाल लगाए जा सकते हैं मगर
मेरा मानना है कि नाई के पास जाने का समय, कटवाने का समय और पैसे भी बचते
हैं।
उपरोक्त सब इसलिए याद आया कि 9 मार्च 2002 को जयपुर के जवाहर कला
केन्द्र के ओपन थियेटर में आयोजित ’एकल अभिनय’ के लिए मशहूर जेडी
अश्वत्थामा का प्ले ‘‘एक क़तरा खून’’ देखने को मिला था। जे.डी. यानि
जयद्रथ जय प्रकाश के सशक्त अभिनय और ढाई घन्टे की लगातार संवाद प्रस्तुति
ने दिल दिमाग को हिलाकर रख दिया था। प्ले की पटकथा के हिसाब से वही जंगल
का दृश्य, दीपकों की रोशनी, लिबास, संगीत और उर्दू के शब्दांे का
इस्तेमाल किया गया था। उस दिन के अखबारों के विज्ञापनों में लिखा था कि
‘‘इस प्ले को आप साँस रोक कर एक टक देखते सुनते रहेंगे’’ और वही हुआ।
‘‘धर्म सज्जन ट्रस्ट’’ के बैनर तले इस ऐतिहासिक नाटक का आयोजन, संचालक
अजय चौपड़ा ने किया था, जो वर्ष में एक बार अपने पिता की याद में इस तरह
के कार्यक्रम दर्शकों की झोली में डालते रहते हैं। जोधपुर में 31
अक्टूबर, 1965 को पैदा हुए इकलौते जेडी के माता पिता पेशे से अध्यापन का
कार्य करते तथा अजमेर के अग्रवाल परिवार से सम्बन्ध रखते हैं। जेडी अब
पुनः अजमेर में बसना चाहते थे। इसीलिए पुष्कर तीर्थ के पास एक जमीन ली।
उस पर अपना मंच अभिनय सिखाने का स्टूडियो खोला, जहां प्रशिक्षणार्थी को
गाँव के वातावरण में सब कार्य स्वयं ही करने होंगे। कोटा से पढ़ाई करके
जेडी ने जयपुर से कानून पास किया, मगर वकालत का पेशा नहीं अपनाया।
क्योंकि बक़ौल जेडी ‘‘मैं सामने वाले की जेब से पैसा नहीं निकलवा सकता।’’
फिर जयपुर में एक साल का डिप्लोमा, ड्रामा में कर, एन.एस.डी. से दो वर्ष
में डिग्री कर, गोल्ड मैडल लिया। वहाँ उनको उत्साह वर्धन करने वाले लोग
मिले।
जेडी की ज़िंदगी की कला का सफ़रनामाः-
जेडी के अनुसार-कोटा से सफदर हाशमी की (1995-97) सोहबत ने मुझे बहुत
झकझोर कर रख दिया और डेढ़ माह की वर्कशॉप ने मुझे मंच को समर्पित कर दिया।
’सुनो जनमेजय’ तथा ’आद्य रंगाचार्य’ जैसी प्रस्तुतियां मैंने इसी समय
दीं। यह वो ज़माना था जब मैं महीने में 30-30 शौकिया प्ले करता था। इतनी
गर्मी थी कि मुंह से खून आने लग जाता था। फिर गाँवों में 1992 से स्ट्रीट
प्ले किये। मुम्बई में स्थापित ख़ालिद तयैब जी एक सफल अध्यापक व कलाकार
हैं। उन्होंने सिखाया – कला मस्तिष्क से शरीर में उतारनी चाहिए।
नसीरूद्दीन शाह ने सिखाया – कला में डूब जाओ और अभिनय मत करो, अभिनय फिर
अपने आप निकल आएगा। राशिद अंसारी ने मुझे मार्शल आर्ट सिखाया। कर्नाटक के
हम्पी गाँव में नाट्य विद्या ख़ालिद तैयब के साथ सीखी। वहां पता लगा घने
जंगल में दाल – रोटी जीवन और कला का रिश्ता।’’
जेडी के जीवन की कला यात्रा अभी तक ठण्डे बस्ते में थी। दिल्ली 1999 में
एक सड़क दुर्घटना ने जेडी की एक टांग को कई जगह से तोड़ दिया और इस
परफॉरमेंस ‘‘एक कतरा खून’’ की सशक्त कला यात्रा यहीं से शुरू हुई। जब
डॉक्टर ने कहा कि एक टाँग काटनी पड़ सकती है। जेडी ने गम्भीर होकर कहा –
तब तो मैं दुनियां के तमाम लंगड़ों का अभिनय कर सकूंगा और इस अन्दाज़ पर
डॉक्टर ने अचम्भित होकर टाँग काटने का इरादा बदल दिया। छः महीने की मेहनत
से टाँग के 13 टुकड़ों को जोड़ दिया। ‘‘बिस्तर पर पड़े-पड़े जेडी के लिए
जलालुद्दीन रूमी की पोएट्री ने लाइट ऑन करने के स्विच का काम किया। राशिद
अंसारी ने इस्लाम और सूफी मत से तआर्रूफ करवाया। बक़ौल जेडी, ’’आसिफ नक़वी
ने करबला के साहित्य से मुझे रूबरू करवाया। मीर अनीस के मर्सिए पढ़े।
एसडीएमएच जयपुर के वाहन चालक ज़हूर मोहम्मद ने मुझे उर्दू सिखाई और
ज़िन्दगी को मैंने क़रीब से देखा। यहीं मुझे पता लगा कि कौन अपना है और कौन
पराया है। और अंत में करबला की इमाम हसन-हुसैन की शहादत व कहानी को मैंने
इतना अपने आप में उतारा कि हिम्मत करके जनवरी 2001 में पहला शो जोधपुर
में कर डाला।’’
और इस प्रकार ‘‘एक क़तरा ख़ून’’ के फिर 3 शो बंगलूरू, एक भीलवाड़ा, एनएसडी
के राष्ट्रीय फेस्टीवल में मोहर्रम के महीने में तीन, अलीगढ़ के कमेटी हॉल
में एक, इन्दौर, चण्डीगढ़ में तीन तीन – जहाँ सरदार रो पड़े। दोबारा
भीलवाड़ा में एक, उदयपुर में एक तथा जयपुर में वह उनका कुल 24वाँ शो था।
इस्मत चुग़ताई के उपन्यास ‘‘एक क़तरा ख़ून’’ में मीर अनीस के मर्सिए मिलाकर
जेडी ने जब पहला शो जोधपुर में किया, उसकी कहानी भी बहुत दिलचस्प है।
जोधपुर में एक बड़ा कमरा किराये पर लेने के बावजूद भी पड़ौसियों ने रिहर्सल
करने से मना कर दिया। अतः रात को टाउन हॉल में रिहर्सल करनी पड़ी। छः
महीने तक दिन रात लगभग टाउन हॉल में ही गुज़ारना पड़ा और इस प्रकार एक
सशक्त अभिनय तैयार हुआ जिसके नायक ने कहा-
‘‘चील के पंजे में, मैं उड़ता हुआ आज़ाद चूहा हूँ।’’
जेडी ने इसे ही क्यों चुनाः-
पूछने पर जवाब मिलता है कि – अब तो यह सवाल बेकार है। यह शहादत की कहानी
मेरी पसन्द है – मैं इसमें रच बस गया हूँ। इतना बड़ा प्ले मुझे रट गया है।
इसे मैं अब भूल नहीं सकता। डायलॉग की रवानी मेरी कला के साथ जुड़ गई है।
उनका उतार चढ़ाव मेरे जिस्म को हरकत देता है।’’ जेडी जब रोल करते थे तो
लगता था आप कहीं हजारों साल पीछे चले गए हैं। रौशनी सिर्फ दीपक की थी। हर
इन्सान तन पर केवल कपड़ा लपेटता था और जोशीला था, मरने मारने को तैयार था।
मगर ईमान पर क़ायम रहते हुए तमाम रिश्तेदारों और मासूम बच्चों को हसन और
हुसैन ने ईमान पर क़ुर्बान कर दिया। संदीप मदान के रौशनी प्रबन्ध, गगन
मिश्रा के मंच प्रबन्ध और संगीत तथा राजू शर्मा के सहायक होने का जेडी
सदा गर्व करते थे। वही उनकी टोली थी जो आरम्भ से जुड़ी हुई थी और जुड़ी
रही। वे तीनों लोग, जेडी की हर बात का इशारा समझते। जब जेडी हल कन्धे पर
लेकर एहराम बांधे दीवाने हुसैन की तरह चलकर मंच पर यह बोलते हुए आते थे
तो ख़ामोशी छा जाती थी और सिर्फ जेडी की आवाज गूंजती थी।
‘‘मेरे पास बहुत कुछ है, शाम है बौछारों से भीगी हुई,
ज़िन्दगी है नूर में दहकती हुई और मैं हूँ…..
हम के झुरमुट से, घिरा हुआ मुझसे और क्या छीनेंगे,
शाम को किसी दूर दराज़ की कोठरी में बंद कर देंगे,
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी को कुचल देंगे, हम में से मैं को निथार लेंगे,
जिसे वो मेरा कुछ नहीं कहते, उसमें उनकी मौत का सामान है,
मेरे पास बहुत कुछ …………….’’
भविष्य की योजना का विचार आते ही जेडी ने कहा था-‘एक और मेरी ख़्वाहिश है
कि मैं मैक्बेथ को फीचर फिल्म के ज़रिये दुनियां के दिमागी मंच पर लाऊँ।
यही एक विषय या यूं कहिए व्यक्तित्व है जो मुझे ‘‘एक क़तरा ख़ून’’ के बाद
प्रभावित करता है और इतना कहते ही उनके सहायक ने गाड़ी दिल्ली रचाना होने
का इशारा किया तो गाड़ी के साथ चलते-चलते भी कहने से रहा न गया –
‘‘पूरी सल्तनत अपने पास रखलो, सच के लिए एक कोना तो दो’’
’यही मेरा दर्द है, जो इमाम हुसैन के चरित्र के ज़रिये मैं बयान करता हूँ।
’’सर दाद न दाद दस्त दर दस्ते यजीद,
हक्का के बिनाए लाइलाहस्त हुसैन।’’
अर्थात इमाम हुसैन ने अपना सर दे दिया लेकिन समझौते के लिए यजीद को हाथ
नहीं दिया, क्योंकि हुसैन हक़ की राह पर थे और यजीद बेईमानी और नाहक़ की
राह पर।)
उस दिन जेडी के उस एकल अभिनय ने हमें रूला दिया था। इससे पहले जीवन में
हमने अव्वल में तो एकल अभिनय कभी देखा ही नहीं था। यूं कहिए कि एकल अभिनय
की शुरूआत जेडी ने ही की थी। फिर हमारी मुलाक़ात जे.डी. से अक्सर होने
लगी। उनकी बहन रंजना के घर वे जब भी जयपुर आते, या तो हमें वहां बुला
लेते या हम उन्हें अपने यहां बुला लेते। मगर भारीपन लिए उस बुलन्द आवाज
के बेहतरीन अदाकारी की शख़्सियत के मालिक ने जीवन के कुछ आख़री साल मुश्किल
में गुज़ारे। समय और समाज ने उनके आर्ट को उचित स्थान नहीं दिया। कोई बढ़कर
आगे नहीं आया कि जेडी के आर्ट को आगे उंचाई पर पहुंचाता। कला क्षेत्र ने
भी उनको वो तवज्ज़ो नहीं दी, जो मिलनी चाहिए थी। इन्हीं सब कुंठाओं से
घिरे इस कलाकार ने शायद अपने 54वें जन्म दिन के चौथे दिन ख़़्ाुदक़ु़शी कर
ली और ’एकल अभिनय’ के एक सफलतम कलाकार का दुखद अन्त हो गया।
गत 5 नवम्बर को अख़बार में न्यूज़ इस प्रकार थीः-
’’थिएटर आर्टिस्ट अश्वत्थामा जेडी ने फंदा लगाकर जान दी, सुसाइड नोट में
लिखा था – देह को दान कर दें। – जयपुर के जाने माने थिएटर आर्टिस्ट
अश्वत्थामा जेडी उर्फ संजू (54) ने शनिवार रात फंदा लगाकर आत्महत्या कर
ली। पुलिस को उनके कमरे से सुसाइड नोट मिला जिसमें लिखा था कि मैं अपनी
मर्ज़ी से मर रहा हूँ। अपनी बहन रंजना को संबोधित करते हुए अपनी देह को
दान करने की बात भी लिखी है। एसआई आशुतोष ने बताया कि अश्वत्थामा मूलतः
अजमेर के रामगंज स्थित नई बस्ती के रहने वाले थे। उन्होेंने सोलो आर्ट
में ख़ूब नाम कमाया। वह अविवाहित थे और सोडाला स्थित वैद्य वाटिका में
किराये के मकान में रह रहे थे।’’

आलेख व चित्र-लियाक़त अली भट्टी
वरिष्ठ पत्रकार